>मनाली से अगले दिन सुबह उठकर हम लोग चले और मंडी होते हुए पहले पहुंचे बैजनाथ मंदिर पर , बैजनाथ मंदिर से हम लोग पहुंचे कांगडा देवी और वहां...
>मनाली से अगले दिन सुबह उठकर हम लोग चले और मंडी होते हुए पहले पहुंचे बैजनाथ मंदिर पर , बैजनाथ मंदिर से हम लोग पहुंचे कांगडा देवी और वहां से ज्वाला देवी । यहां पर हम रात को रूके और सुबह ज्वाला देवी के दर्शन करके हमने चिंतपूर्णी देवी के दर्शन किये । यहां से पठानकोट होते हुए हमें जाना था वैष्णो देवी इस पूरी यात्रा का वृतांत इस प्रकार है आपके सामने"कर लो बैजनाथ महादेव के दर्शन"][/caption]
बैजनाथ हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले का एक कस्बा है और यहां पर शिवजी का एक मंदिर है जिसे कहीं कहीं पर 12 ज्योर्तिलिंगो में से एक भी बताया गया है पर इसकी पूरी सत्यता हमें नही पता चल सकी सो फिर भी हमने इसे देखने का निश्चय किया । यह मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्धारा संरक्षित है । मंदिर के तीन तरफ छोटे छोटे हरे भरे पार्क हैं और एक तरफ बहुत गहराई में एक नदी बहती है । पार्को को बडे ही सुंदर तरीके से सजाया गया और ध्यान रखा जाता है । ज्यादा तो पता नही पर ऐसा कहा जाता है कि रावण ने सैकडो वर्षो तक तपस्या करने के बाद शिव से उनके शिवलिेंग को लंका ले जाने का वरदान मांगा । शिव ने वरदान दे दिया पर कहा कि अगर मार्ग मे कहीं पर शिवलिंग रख दिये तो वहीं पर स्थापित हो जायेंगे । रावण ने एक कांवड ली और उसमें शिवजी के दिये दो शिवलिंग रखकर ले चला । मार्ग में लघुशंका के कारण उसने कांवर किसी बैजू नाम के चरवाहे को पकडा दी । शिवलिंग इतने भारी हो गये कि उन्हे जमीन पर रख देना पडा और वे वहीं पर स्थापित हो गये । रावण उन्हे ले जा नही पाया । जो लिंग कांवर के अगले भाग में था वो चन्द्र भाल नाम से और जो पिछले भाग में था वो बैजनाथ नाम से प्रसिद्ध हुआ । चूंकि बैजू नाम के चरवाहे ने उस शिवलिंग की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी इसलिये शिवजी ने उसे आर्शीवाद दिया और उसी के नाम पर शिवलिेग का नाम पडा । ये जनश्रुति है और ऐसी ही एक जनश्रुति और भी है कि इस कस्बे में रावण को नही जलाया जाता दशहरे के दिन क्योंकि यहां के लोग मानते हैं कि रावण शिव का परम भक्त था और उसने शिव की जितनी तपस्या की उतनी किसी और ने नही सो रावण का पुतला जलाने से शिव रूष्ट हो जायेंगे इसलिये यहां ये उत्सव नही मनाया जाता है । हमारे अलावा मंदिर में इक्का दुक्का आदमी थे । बडे प्यार से भोलेनाथ के शिवलिंग के दर्शन करके हम लोग चल दिये और रास्ते में हमने कांगडा घाटी जिसमें की चाय के बागान है को भी देखा । ये हमारा पहला अनुभव था चाय के बागान को देखने का जिसे हमने पिछले साल केरल के मुन्नार ,उटी , कोडाईकनाल में आगे बढाया । माता के शक्तिपीठो की कहानी आप सब जानते होंगे फिर भी मै आपको बता दूं कि माता के शक्तिपीठो में सबसे अव्वल स्थान हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले में ज्वाला देवी का मंदिर है । ये मंदिर जितना कांगडा से दूर है उतना ही धर्मशाला से । ऐसा कहते हैं कि माता ज्वाला देवी के मंदिर में माता की नौ ज्वालाऐं प्रज्जवलित है जो कि नौ देवियो के स्वरूप को कहती हैं । हम जब ज्वाला देवी के मंदिर पहुंचे तो वहां रात के आठ बज चुके थे लगभग और माता के मंदिर पर इतनी भीड थी कि पूछो मत हम एक खुशफहमी के शिकार थे कि हमारे पास अपनी गाडी है सेा पहले तो हमने मंदिर के आसपास होटल देखने की कोशिश की पर जब कहीं भी किसी धर्मशाला या होटल में खाली कमरा नही मिला तो हमने ड्राइवर से कहा कि आगे चलो और उसके बाद हम लगभग दस किलोमीटर आगे तक हो आये पर वहां मंदिर जैसी हालत थी । हुआ ये कि जिनके पास भी अपनी गाडी थी वो सब दूर जाकर रूक गये थे इसलिये वहां के भी सारे होटल फुल थे । हम फिर वापिस मंदिर के पास आये और एक होटल वाले से कहा कि भाई रूकना तो है ही रात को तो कुछ इंतजाम करा दो तो उसने बोला कि पास में एक किलोमीटर एक गांव है वहां एक घर में एक कमरा मिलेगा वो भी 600 रू में मंजूर हो तो बोलो । ऐसी आशा की किरण को कौन छोडता । एक किलोमीटर दूर एक गांव के रास्ते पर घुसते ही एक निजी मकान में दो कमरे थे जिनमें से एक में पहले से ही एक परिवार रूका था दूसरे में हम रूक गये । रूक क्या गये रात के लगभग 10 बज गये थे खाना आदि खाने में और सुबह 3 बजे उठकर हम लोग नहा धोकर चल दिये और 4 बजे मंदिर पहुंचे तो जो हम सोच रहे थे कि वहां तो अभी भीड नही होगी उसके उलट वहां इतनी भीड थी कि सुबह 4 बजे से लाइन में लगे लगे 8 बजे के भी कुछ बाद में हमारा नम्बर आया । बच्चो ने और हमने दर्शन करने से पहले कुछ भी नही खाया था और इसलिये लाइन में हम लगे थे जबकि दीदी और लवी साथ में चलते चलते आस पास में कहीं बैठने की जगह पर बैठ जाती थी । पुराणो में शक्ति पीठ के बारे में कहा गया है कि पार्वती और शिव की शादी से राजा दक्ष काफी नाराज थे । उन्होने जब एक यज्ञ रखा तो सबको बुलाया पर बेटी और दामाद को निमंत्रण नही दिया । लेकिन भगवान शिव के मना करने पर भी पार्वती अपने पिता के यज्ञ में गयी तो वहां पर उनका आदर तो दूर बल्कि उनकी बहनेा के सामने शिव के बारे में काफी बुरा भला कहा गया । अपने पति के इस अपमान को पार्वती सहन ना कर सकी और उसी यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राणो की आहूति दे दी । शिव को पता चला तो उन्होने प्रचंड रूप धारण करके राजा दक्ष के यहां सब कुछ नष्ट कर दिया और सती के शरीर को उठाकर चल दिये । जब शिव पार्वती के शरीर को उठाकर वायु मार्ग से ले जा रहे थे तो उनके अंग गिरते जा रहे थे और जहां जहां उनके अंग गिरे वहां वहां माता के शक्तिपीठ स्थापित हुए । यहां पर माता की जीभ गिरी थी ऐसा कहते हैं कि काफी सालो के बाद यहां एक सिद्ध साधु पधारे तो उन्होने माता से आग्रह किया कि वो काफी भूखे हैं इसलिये माता उनके लिये खाना बना दे । साधु ने माता से कहा कि वो आग जलाकर और पानी गर्म करके रखे वो गुफा से बाहर जाके भिक्षा मांग कर ले आते हैं । बताते है कि साधु के बाहर निकलते ही कलयुग आ गया और सारी चीजे वैसे ही थम गयी जैसे कि चल रही थी आज भी पानी वैसे ही उबल रहा है और ज्वाला जल रही है जिसे हम ज्वाला माता के नाम से जानते हैं माता के इस मंदिर की स्थापना के बारे में कहते हैं कि कांगडा के राजा भुमीचंद को माता ने सपने में आकर अपने इस स्थान के बारे में बताया और अपना मंदिर बनाने को कहा । राजा जो कि माता का भक्त था ने माता के इस मंदिर का निर्माण कराया । बाद में 19 वी शताब्दी में राजा रंजीत सिंह और उसके बेटे खडक सिंह ने मंदिर के निर्माण के लिये सोने और चांदी का दान किया । माता के इस मंदिर से अकबर का भी किस्सा जुडा है । कहते है कि जिस समय अकबर भारत का राजा था एक दिन उसे मां ज्वाला देवी और उसकी ज्योत के बारे में पता चला । अपनी ताकत के नशे में चूर अकबर ने मां की ज्वाला को बुझाने के लिये पहले पानी डलवाया ज्वालाओ पर लेकिन जब इससे कुछ नही हुआ तो उसने ज्योति के उपर लोहे की बहुत मोटी चादर मढवा दी पर ज्वाला माई की ज्योति उस लोहे की बहुत मोटी चादर को फाडकर निकल गयी । तब जाकर अकबर को माता की ताकत और अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ इसलिये उसके बाद वो अपने पूरे परिवार के साथ ज्वालादेवी के मंदिर आया और माता पर चढाने के लिये एक सोने का छत्र लेकर आया । जब अकबर ने माता पर वो छत्र चढाना चाहा तो माता ने अपनी शक्ति से उसे उसे दूर फेंक दिया और उस सोने के छत्र को ऐसी धातु में बदल दिया जिसके बारे में आज तक पता नही चल सका है कि वो धातु है क्या । ये धातु आज भी माता के मंदिर में रख्री हुई है । माता के इस मंदिर की महिमा ऐसी है कि यहां आकर नास्तिक भी आस्तिक हो जाये नही तो वो क्या कहेगा इस शक्ति को अंग्रेजो के भी एक बार दिमाग में आया कि इस निकल रही ज्वाला जो कि हो सकता है कि कोई उर्जा का श्रोत हो से उर्जा बनायें और उन्होने भी पूरी कोशिश की उर्जा को ढूंढने की पर नाकाम रहे । मंदिर में माता की नौ ज्वालाओ मे जो मुख्य ज्वाला है उसे महाकाली कहते हैं और मंदिर के पास ही उपर की तरफ गोरख डिब्बी है । जहां एक कुड में पानी खौलता सा लगता है पर अगर हाथ से छूकर देखो तो ठंडा लगता है । एक बात जरूर कहूंगा कि हर आदमी को एक बार माता के इस चमत्कार के दर्शन जरूर करने चाहियें । मंदिर में मौजूद ज्वाला में ना तो तेल है ना बाती ना कोई दिया फिर भी ये अनवरत जलती रहती हैं । नवरात्रो में या किसी भी शुभ काम में लोग यहां से ज्वाला भी लेकर जाते हैं या कहीं पर अखंड ज्योत जलानी होती है तो भी लोग यहां से ज्योति प्रचंड करके ले जाते हैं । माता का मंदिर सारे साल खुला रहता है पर दर्शन रात के दस बजे तक ही होते हैं । ब्रजेश्वरी देवी के मंदिर से माता का मंदिर तीस किलोमीटर है और ये तीनो देविया यहां आपस में एक दूसरे से तीस किलोमीटर के फासले पर हैं । कुल्लू व धर्मशाला मे हवाई अडडा है और कालका में सबसे नजदीक का रेलवे स्टेशन । पुराने कांगडा शहर में स्थापित ब्रजेश्वरी देवी का मंदिर माता के शक्तिपीठो में से एक है । कहा जाता है कि यहां पर सती के स्तन गिरे थे । किसी समय में कांगडा घाटी की राजधानी रही कांगडा में दो दो शक्तिपीठ हैं एक ज्वाला देवी और एक ब्रजेश्वरी देवी । बनेर व बाणगंगा के संगम की पहाडी पर बना कांगडा दुर्ग एक समय में अजेय माना जाता था । और कभी सोने चांदी के भंडारो के लिये प्रसिद्ध रहा है और इसीलिये इस पर गजनी और तुगलक ने भी आक्रमण किये हैं । कांगडा में स्थित होने के कारण इन्हे कांगडे वाली माता भी कहते हैं । 1905 में ये मंदिर भूकम्प के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था जिसे दोबारा से बनाया गया । मंदिर में जाने से पहले गाडी काफी दूर रोक दी जाती है क्येांकि आगे पतली और तंग गलियो का बाजार है । पैदल कुछ दूर चलकर माता का मंदिर आता है । शक्तिपीठ में होने के कारण इस मंदिर में साल भर भक्तो का तांता लगा रहता हैमाता दुर्गा की स्तुति करने वाले जानते हैं कि आरतियों में भी कई जगह आता है कि ...नगरकोट में तुम्ही विराजत तीहूं लोक में डंका बाजत ...वो नगरकोट यहीं है और नगरकोट वाली माता इन्ही को कहा जाता है । माता का मंदिर और मूर्ति काफी सुंदर है और थोडी देर लाइन में लगने के बाद हमने बडे प्यार से दर्शन किये हिमाचल की खूबसूरत वादियो में मौजूद चिंतपूर्णी धाम देवी के प्रमुख शक्ति स्थलो में से एक है । कभी कभी तो लगता है कि अगर देवी मां रहती होंगी तो यहां जरूर रहती होंगी क्योंकि ये जगह ही इतनी सुंदर है । कुछ तो पहाडो का सौंदर्य और उपर से अथाह शांति । चिंतपूरणी का अर्थ है चिंता को हरने वाली । माता अपने पास आने वाले सभी भक्तो की चिंता दूर करती है । जब शिवजी सती के शरीर को लिये घूम रहे थे और विष्णु जी ने अपने चक्र से उनके टुकडे कर दिये तो माता सती के चरण यहां गिरे थे इसी कारण माता के स्वरूप की यहां पिंडी रूप में पूजा होती है और इस मंदिर को माता के 51 शक्तिपीठ में माना जाता है । चिंतपूर्णी माता को छिन्नमस्तिका देवी के नाम से भी जाना जाता है । देवी के इस रूप की एक कथा पुराणो में आती है और आप सबने देवी का एक चित्र भी देखा होगा जिसमें देवी ने अपना सिर काटकर अपने हाथ में लिया हुआ है उस चित्र एवं माता के छिन्नमस्तिका रूप की कथा इस तरह कही जाती है कि जब माता ने राक्षसो के साथ हो रहे युद्ध में चंडी देवी का रूप धरकर राक्षसो को मारा और देवताओ को विजय दिलाई तो भी राक्षसो के मर जाने के बाद भी माता की सहायक योगिनिया अजया और विजया की रक्त की प्यास शांत नही हुई । युद्ध समाप्त हो चुका था और सब राक्षस मारे जा चुके थे इसलिये माता ने उनकी रक्त की प्यास को शांत करने के लिये अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी प्यास बुझाई इसीलिये माता को छिन्नमस्तिका के नाम से पुकारा जाने लगा । हिमाचल के उना जिले में स्थित माता का धाम सुंदर वातावरण में स्थित है और नवरात्रो में तो यहां मेला लगता है और बडा ही भक्तिमय वातावरण हो जाता है । पर हमें माता के दर्शन बडे आराम से हो गये थे ।
बैजनाथ हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले का एक कस्बा है और यहां पर शिवजी का एक मंदिर है जिसे कहीं कहीं पर 12 ज्योर्तिलिंगो में से एक भी बताया गया है पर इसकी पूरी सत्यता हमें नही पता चल सकी सो फिर भी हमने इसे देखने का निश्चय किया । यह मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्धारा संरक्षित है । मंदिर के तीन तरफ छोटे छोटे हरे भरे पार्क हैं और एक तरफ बहुत गहराई में एक नदी बहती है । पार्को को बडे ही सुंदर तरीके से सजाया गया और ध्यान रखा जाता है । ज्यादा तो पता नही पर ऐसा कहा जाता है कि रावण ने सैकडो वर्षो तक तपस्या करने के बाद शिव से उनके शिवलिेंग को लंका ले जाने का वरदान मांगा । शिव ने वरदान दे दिया पर कहा कि अगर मार्ग मे कहीं पर शिवलिंग रख दिये तो वहीं पर स्थापित हो जायेंगे । रावण ने एक कांवड ली और उसमें शिवजी के दिये दो शिवलिंग रखकर ले चला । मार्ग में लघुशंका के कारण उसने कांवर किसी बैजू नाम के चरवाहे को पकडा दी । शिवलिंग इतने भारी हो गये कि उन्हे जमीन पर रख देना पडा और वे वहीं पर स्थापित हो गये । रावण उन्हे ले जा नही पाया । जो लिंग कांवर के अगले भाग में था वो चन्द्र भाल नाम से और जो पिछले भाग में था वो बैजनाथ नाम से प्रसिद्ध हुआ । चूंकि बैजू नाम के चरवाहे ने उस शिवलिंग की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी इसलिये शिवजी ने उसे आर्शीवाद दिया और उसी के नाम पर शिवलिेग का नाम पडा । ये जनश्रुति है और ऐसी ही एक जनश्रुति और भी है कि इस कस्बे में रावण को नही जलाया जाता दशहरे के दिन क्योंकि यहां के लोग मानते हैं कि रावण शिव का परम भक्त था और उसने शिव की जितनी तपस्या की उतनी किसी और ने नही सो रावण का पुतला जलाने से शिव रूष्ट हो जायेंगे इसलिये यहां ये उत्सव नही मनाया जाता है । हमारे अलावा मंदिर में इक्का दुक्का आदमी थे । बडे प्यार से भोलेनाथ के शिवलिंग के दर्शन करके हम लोग चल दिये और रास्ते में हमने कांगडा घाटी जिसमें की चाय के बागान है को भी देखा । ये हमारा पहला अनुभव था चाय के बागान को देखने का जिसे हमने पिछले साल केरल के मुन्नार ,उटी , कोडाईकनाल में आगे बढाया । माता के शक्तिपीठो की कहानी आप सब जानते होंगे फिर भी मै आपको बता दूं कि माता के शक्तिपीठो में सबसे अव्वल स्थान हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले में ज्वाला देवी का मंदिर है । ये मंदिर जितना कांगडा से दूर है उतना ही धर्मशाला से । ऐसा कहते हैं कि माता ज्वाला देवी के मंदिर में माता की नौ ज्वालाऐं प्रज्जवलित है जो कि नौ देवियो के स्वरूप को कहती हैं । हम जब ज्वाला देवी के मंदिर पहुंचे तो वहां रात के आठ बज चुके थे लगभग और माता के मंदिर पर इतनी भीड थी कि पूछो मत हम एक खुशफहमी के शिकार थे कि हमारे पास अपनी गाडी है सेा पहले तो हमने मंदिर के आसपास होटल देखने की कोशिश की पर जब कहीं भी किसी धर्मशाला या होटल में खाली कमरा नही मिला तो हमने ड्राइवर से कहा कि आगे चलो और उसके बाद हम लगभग दस किलोमीटर आगे तक हो आये पर वहां मंदिर जैसी हालत थी । हुआ ये कि जिनके पास भी अपनी गाडी थी वो सब दूर जाकर रूक गये थे इसलिये वहां के भी सारे होटल फुल थे । हम फिर वापिस मंदिर के पास आये और एक होटल वाले से कहा कि भाई रूकना तो है ही रात को तो कुछ इंतजाम करा दो तो उसने बोला कि पास में एक किलोमीटर एक गांव है वहां एक घर में एक कमरा मिलेगा वो भी 600 रू में मंजूर हो तो बोलो । ऐसी आशा की किरण को कौन छोडता । एक किलोमीटर दूर एक गांव के रास्ते पर घुसते ही एक निजी मकान में दो कमरे थे जिनमें से एक में पहले से ही एक परिवार रूका था दूसरे में हम रूक गये । रूक क्या गये रात के लगभग 10 बज गये थे खाना आदि खाने में और सुबह 3 बजे उठकर हम लोग नहा धोकर चल दिये और 4 बजे मंदिर पहुंचे तो जो हम सोच रहे थे कि वहां तो अभी भीड नही होगी उसके उलट वहां इतनी भीड थी कि सुबह 4 बजे से लाइन में लगे लगे 8 बजे के भी कुछ बाद में हमारा नम्बर आया । बच्चो ने और हमने दर्शन करने से पहले कुछ भी नही खाया था और इसलिये लाइन में हम लगे थे जबकि दीदी और लवी साथ में चलते चलते आस पास में कहीं बैठने की जगह पर बैठ जाती थी । पुराणो में शक्ति पीठ के बारे में कहा गया है कि पार्वती और शिव की शादी से राजा दक्ष काफी नाराज थे । उन्होने जब एक यज्ञ रखा तो सबको बुलाया पर बेटी और दामाद को निमंत्रण नही दिया । लेकिन भगवान शिव के मना करने पर भी पार्वती अपने पिता के यज्ञ में गयी तो वहां पर उनका आदर तो दूर बल्कि उनकी बहनेा के सामने शिव के बारे में काफी बुरा भला कहा गया । अपने पति के इस अपमान को पार्वती सहन ना कर सकी और उसी यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राणो की आहूति दे दी । शिव को पता चला तो उन्होने प्रचंड रूप धारण करके राजा दक्ष के यहां सब कुछ नष्ट कर दिया और सती के शरीर को उठाकर चल दिये । जब शिव पार्वती के शरीर को उठाकर वायु मार्ग से ले जा रहे थे तो उनके अंग गिरते जा रहे थे और जहां जहां उनके अंग गिरे वहां वहां माता के शक्तिपीठ स्थापित हुए । यहां पर माता की जीभ गिरी थी ऐसा कहते हैं कि काफी सालो के बाद यहां एक सिद्ध साधु पधारे तो उन्होने माता से आग्रह किया कि वो काफी भूखे हैं इसलिये माता उनके लिये खाना बना दे । साधु ने माता से कहा कि वो आग जलाकर और पानी गर्म करके रखे वो गुफा से बाहर जाके भिक्षा मांग कर ले आते हैं । बताते है कि साधु के बाहर निकलते ही कलयुग आ गया और सारी चीजे वैसे ही थम गयी जैसे कि चल रही थी आज भी पानी वैसे ही उबल रहा है और ज्वाला जल रही है जिसे हम ज्वाला माता के नाम से जानते हैं माता के इस मंदिर की स्थापना के बारे में कहते हैं कि कांगडा के राजा भुमीचंद को माता ने सपने में आकर अपने इस स्थान के बारे में बताया और अपना मंदिर बनाने को कहा । राजा जो कि माता का भक्त था ने माता के इस मंदिर का निर्माण कराया । बाद में 19 वी शताब्दी में राजा रंजीत सिंह और उसके बेटे खडक सिंह ने मंदिर के निर्माण के लिये सोने और चांदी का दान किया । माता के इस मंदिर से अकबर का भी किस्सा जुडा है । कहते है कि जिस समय अकबर भारत का राजा था एक दिन उसे मां ज्वाला देवी और उसकी ज्योत के बारे में पता चला । अपनी ताकत के नशे में चूर अकबर ने मां की ज्वाला को बुझाने के लिये पहले पानी डलवाया ज्वालाओ पर लेकिन जब इससे कुछ नही हुआ तो उसने ज्योति के उपर लोहे की बहुत मोटी चादर मढवा दी पर ज्वाला माई की ज्योति उस लोहे की बहुत मोटी चादर को फाडकर निकल गयी । तब जाकर अकबर को माता की ताकत और अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ इसलिये उसके बाद वो अपने पूरे परिवार के साथ ज्वालादेवी के मंदिर आया और माता पर चढाने के लिये एक सोने का छत्र लेकर आया । जब अकबर ने माता पर वो छत्र चढाना चाहा तो माता ने अपनी शक्ति से उसे उसे दूर फेंक दिया और उस सोने के छत्र को ऐसी धातु में बदल दिया जिसके बारे में आज तक पता नही चल सका है कि वो धातु है क्या । ये धातु आज भी माता के मंदिर में रख्री हुई है । माता के इस मंदिर की महिमा ऐसी है कि यहां आकर नास्तिक भी आस्तिक हो जाये नही तो वो क्या कहेगा इस शक्ति को अंग्रेजो के भी एक बार दिमाग में आया कि इस निकल रही ज्वाला जो कि हो सकता है कि कोई उर्जा का श्रोत हो से उर्जा बनायें और उन्होने भी पूरी कोशिश की उर्जा को ढूंढने की पर नाकाम रहे । मंदिर में माता की नौ ज्वालाओ मे जो मुख्य ज्वाला है उसे महाकाली कहते हैं और मंदिर के पास ही उपर की तरफ गोरख डिब्बी है । जहां एक कुड में पानी खौलता सा लगता है पर अगर हाथ से छूकर देखो तो ठंडा लगता है । एक बात जरूर कहूंगा कि हर आदमी को एक बार माता के इस चमत्कार के दर्शन जरूर करने चाहियें । मंदिर में मौजूद ज्वाला में ना तो तेल है ना बाती ना कोई दिया फिर भी ये अनवरत जलती रहती हैं । नवरात्रो में या किसी भी शुभ काम में लोग यहां से ज्वाला भी लेकर जाते हैं या कहीं पर अखंड ज्योत जलानी होती है तो भी लोग यहां से ज्योति प्रचंड करके ले जाते हैं । माता का मंदिर सारे साल खुला रहता है पर दर्शन रात के दस बजे तक ही होते हैं । ब्रजेश्वरी देवी के मंदिर से माता का मंदिर तीस किलोमीटर है और ये तीनो देविया यहां आपस में एक दूसरे से तीस किलोमीटर के फासले पर हैं । कुल्लू व धर्मशाला मे हवाई अडडा है और कालका में सबसे नजदीक का रेलवे स्टेशन । पुराने कांगडा शहर में स्थापित ब्रजेश्वरी देवी का मंदिर माता के शक्तिपीठो में से एक है । कहा जाता है कि यहां पर सती के स्तन गिरे थे । किसी समय में कांगडा घाटी की राजधानी रही कांगडा में दो दो शक्तिपीठ हैं एक ज्वाला देवी और एक ब्रजेश्वरी देवी । बनेर व बाणगंगा के संगम की पहाडी पर बना कांगडा दुर्ग एक समय में अजेय माना जाता था । और कभी सोने चांदी के भंडारो के लिये प्रसिद्ध रहा है और इसीलिये इस पर गजनी और तुगलक ने भी आक्रमण किये हैं । कांगडा में स्थित होने के कारण इन्हे कांगडे वाली माता भी कहते हैं । 1905 में ये मंदिर भूकम्प के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था जिसे दोबारा से बनाया गया । मंदिर में जाने से पहले गाडी काफी दूर रोक दी जाती है क्येांकि आगे पतली और तंग गलियो का बाजार है । पैदल कुछ दूर चलकर माता का मंदिर आता है । शक्तिपीठ में होने के कारण इस मंदिर में साल भर भक्तो का तांता लगा रहता हैमाता दुर्गा की स्तुति करने वाले जानते हैं कि आरतियों में भी कई जगह आता है कि ...नगरकोट में तुम्ही विराजत तीहूं लोक में डंका बाजत ...वो नगरकोट यहीं है और नगरकोट वाली माता इन्ही को कहा जाता है । माता का मंदिर और मूर्ति काफी सुंदर है और थोडी देर लाइन में लगने के बाद हमने बडे प्यार से दर्शन किये हिमाचल की खूबसूरत वादियो में मौजूद चिंतपूर्णी धाम देवी के प्रमुख शक्ति स्थलो में से एक है । कभी कभी तो लगता है कि अगर देवी मां रहती होंगी तो यहां जरूर रहती होंगी क्योंकि ये जगह ही इतनी सुंदर है । कुछ तो पहाडो का सौंदर्य और उपर से अथाह शांति । चिंतपूरणी का अर्थ है चिंता को हरने वाली । माता अपने पास आने वाले सभी भक्तो की चिंता दूर करती है । जब शिवजी सती के शरीर को लिये घूम रहे थे और विष्णु जी ने अपने चक्र से उनके टुकडे कर दिये तो माता सती के चरण यहां गिरे थे इसी कारण माता के स्वरूप की यहां पिंडी रूप में पूजा होती है और इस मंदिर को माता के 51 शक्तिपीठ में माना जाता है । चिंतपूर्णी माता को छिन्नमस्तिका देवी के नाम से भी जाना जाता है । देवी के इस रूप की एक कथा पुराणो में आती है और आप सबने देवी का एक चित्र भी देखा होगा जिसमें देवी ने अपना सिर काटकर अपने हाथ में लिया हुआ है उस चित्र एवं माता के छिन्नमस्तिका रूप की कथा इस तरह कही जाती है कि जब माता ने राक्षसो के साथ हो रहे युद्ध में चंडी देवी का रूप धरकर राक्षसो को मारा और देवताओ को विजय दिलाई तो भी राक्षसो के मर जाने के बाद भी माता की सहायक योगिनिया अजया और विजया की रक्त की प्यास शांत नही हुई । युद्ध समाप्त हो चुका था और सब राक्षस मारे जा चुके थे इसलिये माता ने उनकी रक्त की प्यास को शांत करने के लिये अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी प्यास बुझाई इसीलिये माता को छिन्नमस्तिका के नाम से पुकारा जाने लगा । हिमाचल के उना जिले में स्थित माता का धाम सुंदर वातावरण में स्थित है और नवरात्रो में तो यहां मेला लगता है और बडा ही भक्तिमय वातावरण हो जाता है । पर हमें माता के दर्शन बडे आराम से हो गये थे ।
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