कुछ दिन की छुटटी लगातार बन आये और साथ में कुछ दिन की ले ली जाये तो एक बेहतर टूर की तलाश शुरू हो जाती है । ऐसा ही कुछ हम कर रहे थे तो र...
>दिल्ली से जगन्नाथ पुरी कोणार्क —भुवनेश्वर—कोलकाता—गंगासागर—गया जी —उज्जैन —इलाहबाद दिल्ली किराया था 7100 रू एक बंदे का औेर दस ग्यारह दिन के टूर में खाना नाश्ता और घुमाना लोकल का सब इसी किराये में । स्पेशल ट्रेन जो सिर्फ आपके लिये होगी । सुनने में बडा आश्चर्य जनक था कि ऐसा टूर अब तक मुझे पता क्यों नही था । मैने ऋषिकेश से चलने वाले प्राइवेट टूर आपरेटरो के ऐसे ही टूर पढे थे पर उनकी कीमत इनके दुगुने से भी ज्यादा थी । दूसरी बात उनकी अपनी ट्रेन नही होती थी वो तो ट्रेन के पीछे उनका एक या दो डिब्बा लगा दिया जाता था । सब कुछ बढिया था एक दो से पूछा भाई चलोगे जब जबाब नही मिला तो मैने नेट से ही पेमेंट कर अपनी दो टिकट बुक करा दी । समय आते आते पैकिंग कर ली और निश्चित तारीख पर दिल्ली पहुंच गये । एक स्पेशल स्टेशन पर हमारी स्पेशल ट्रेन खडी थी ।
दिल्ली के अलावा बरेली , मुरादाबाद से भी यात्री लिये जाने थे और दिन के दो बजे दिल्ली से चली ट्रेन रात को इन सबह जगहो से यात्रियेा को लेती हुई अगले पूरे दिन और पूरी रात सफर में रही और दूसरे दिन सुबह पुरी पहुंची । ट्रेन में हर डिब्बे में गार्ड था और रसोई यान लगा हुआ था जिसमें शाकाहारी खाना लगभग 30 से ज्यादा दक्षिण भारत के रसोईये बनाते थे । हां जी ये बडी अजीब बात थी यात्री सभी उत्तर भारत के और खाना दक्षिण भारतीय । नाश्ते में इडली सांभर उत्तपम पता नही क्या क्या खिला दिया । चाय में चाय मसाला जरूर होता और खाने में चावल । आपकी सीट पर बैठे बैठे ही खाना मिलता । पहले एक डिस्पोजल बर्तन रख देता फिर एक एक करके परोसते जाते । कभी कभी ये स्पेशल ट्रेन खडी भी रहती कई कई घंटे किसी स्टेशन पर तेा बडा गुस्सा आता । पर कुछ कर भी तो नही सकते थे खाने पर तो हंगामा भी होने लगा दूसरे दिन के बाद क्योंकि पूरी और चावल खाने से कई लोगो को परहेज था । ट्रेन में ज्यादातर लोग बुजुर्ग थे और सबसे युवा जोडा हम ही थे ।कई लोगो ने तो हमें कहा भी कि तुम इतनी सी उम्र में अभी कहां से तीर्थ यात्रा पर निकल पडे । तब हमें समझाना पडता कि अंकल हम तो आपकी सेवा में आये हैं तीर्थ तो अपने आप हो जायेगा ।हमारी सीट के पडौसी दिल्ली के शालीमार बाग में रहने वाले हरकरन अंकल और आंटी थे । कई और के साथ उनके हमारे ऐसे संबंध बन गये कि आज भी नियमित बात होती हैं और आना जाना होता रहता है हम तो बैठे भी रसोई यान के पास थे बनने के साथ ही पता चल जाता था कि आज क्या बनने वाला है या चाय बननी शुरू हो गयी है । कुल जमा आठ डिब्बो में 250 यात्री थे और साथ में रेलवे के दो तीन टूर मैनेजर कम गाइड ।
एक समस्या आते और जाते समय पडी नहाने की । ट्रेन में नहाने की कोई व्यवस्था नही थी और दिल्ली से चलने के अगले दिन बिना नहाये रहना पडा । पुरी पहुंचकर ट्रेन को यार्ड में खडा कर दिया गया और हमें एक धर्मशाला में पहुंचा दिया गया । जहां से नहा धोकर हम चले हिंदुओ के चार धामो में से एक जगन्नाथ पुरी के दर्शनो के लिये
जगन्नाथ जी की कथा इस रूप में सुनी सुनायी जाती है कि जब यहां घोर वन हुआ करता था और नीलांचल पहाड था जिसके पश्चिम में रोहिणी कुंड था जिसके किनारे विष्णु की मूर्ति थी जो कि नीले रंग की थी । मालव प्रदेश के राजा को उस मूर्ति की खबर मिली और राजा ने उसकी खोज शुरू करवाई और चारेा दिशाओ में ब्राहमणो को भेजा । उन्ही में से एक ब्राहमण पूर्व दिशा में चलता गया और बहुत दूर पहुंचकर एक जगह भीलो के घर में रूका । जिस भील के घर में वो रूका वो रोज जंगल में जाता और वहां कुछ फल और फूल लेकर जाता था । एक दिन उसकी लडकी ने कहा कि पिताजी घर में मेहमान हैं इनको भी साथ ले जाओ तो पहले तो भील तैयार नही हुआ । बाद में हुआ तो एक शर्त रखी कि वो ब्राहमण को भगवान के दर्शन तो करा देगा पर रास्ता नही दिखायेगा और आंखो पर पटटी बांधकर ले जायेगा । ब्राहमण भी चालाक निकला और एक थैली में सरसो ली और रास्ते में उसे बिखेरता चला गया । भील ने विष्णु जी की मूर्ति के दर्शन कराये और इसके बाद ब्राहमण ने उस रास्ते से दोबारा जाकर दर्शन किये और फिर अपने राजा को जाकर बताया कि मैने मूर्ति का पता लगा लिया है । राजा दल बल के साथ और अभिमान से नीलांचल को चल पडा ।
उसके अहंकार को देखकर भगवान गायब हो गये । जब राजा को मूर्ति नही दिखी तो वो निराश हुआ और उसने अपनी गलती मानकर भगवान की कठिन तपस्या करने लगा । तब जाकर भगवान ने उसे सपने में कहा कि तू मेरे दर्शन करेगा पर पाषाण के रूप में नही बल्कि काठ के रूप में । इसके बाद राजा को वहीं समुद्र में बहता हुआ एक बहुत बडा काठ का टुकडा मिला । राजा ने उसे निकाला और सोचा कि काठ तो मिल गया पर इसकी मूर्ति कौन बनायेगा । इस समस्या को सुलझाने के लिये विश्वकर्मा अवतरित हुए एक बूढे के रूप में और मूर्ति बनाने के लिये कहा पर एक शर्त के साथ कि जब तक मै मूर्ति ना बना लूं तब तक कोई उस जगह को नही देखेगा ना आयेगा । इसके बाद मूर्ति निर्माण शुरू हुआ । काफी दिन हो गये तो रानी को फिक्र हुई कि बूढा इतने दिनो में तो भूख प्यास से मर भी गया होगा तो एक बार कमरा खोलकर देख लो । राजा ने रानी की बात मानकर कमरा खोला तो बूढा तो वहां नही मिला पर जगन्नाथ , सुभद्रा और बलराम की मूर्तिया अधूरी थी । राजा ने सोचा कि अब मूर्ति कैसे पूरी होंगी पर तभी आकाशवाणी हुई कि हम इसी रूप में रहेंगे आप स्थापना करो तब से यहां जगन्नाथ जी के रूप में दर्शन होते हैं और वो मूर्तिया अधूरी ही हैं
मंदिर के चार द्धार हैं । हम जिस द्धार से गये वहां एक उंचा स्तम्भ था । गेट के पास मोबाईल और कैमरा 10 रू प्रति नग के हिसाब से जमा करा दिया गया । ये उंचा स्तम्भ अरूण स्तम्भ है जो कि कोणार्क से लाया गया है । जूते भी गेट पर जमा करा दिये गये थे और जैसे ही गेट में घुसे तेा वहां पानी से गुजरना पडता है जिससे कि पानी लगकर पैर साफ हो जाये अपने आप । मंदिर में 16 फुट उंची और चार फुट चौडी श्यामवर्ण मूर्ति जगन्नाथ जी , बीच में सुभद्रा जी और बलराम की है । इन मूर्तियो के हाथ और चेहरा भी अधूरे बने हैं मंदिर के बाहर से हमने प्रसाद ले लिया था । अंदर बडी भीड थी और मूर्तियो के थोडी दूर ही बहुत सारे पंडा चिपट गये कि इतने रू दो आपको स्पेशल दर्शन करा देंगे । हम आगे चलते रहे ।
ये मेरा तीसरा धाम होना था और मुझे बडा उत्साह था इसके लिये । जब हम दर्शनो के लिये और पास पहुंचे तो पंडो ने पैसे लेने के लिये खींचतान शुरू कर दी । उनमें से कुछ तो उकसाने वाली बात करते थे जैसे कि यहां ऐसे ही चले आये कुछ चढावा तो चढाओ । मै दर्शन करना चाहता था और वो थे कि बस एक ही धुन में लगे थे । मेरी भी धुन पक्की थी मैने जो प्रसाद उन्होने मेरा चढाने को लिया था वो छोड दिया और सीधा चलता हुआ भगवान जगन्नाथ जी के पास पहुंचा हाथ जोडे सिर झुकाया और बाहर आ गया बाहर आकर हमने कुछ छोटे बडे मंदिर भी देखे जो इसी परिसर में थे और उसके बाद बाहर निकल गये । हमारी बस के यात्री अभी पूरे नही आये थे इसलिये हमने तब तक एटीम से पैसे निकाले । इसके बाद हम वापिस धर्मशाला गये और खाना खाया । खाने के बाद हमारा कार्यक्रम कोणार्क जाने का था ।
aapka aabhar.
ReplyDeleteबड़ा ही खूबसूरत प्रकृति से तारतम्य बिठाता संस्मरण ..
ReplyDeletebahut pyara khoobsurat sansmaran..
ReplyDeletehamen bhi jagnnathpuri ki darshan ho chale.. wahan jaana jaane kab yog banta hai.. ..
wow thx a lot...... seriously gud we r going to jagannath dham in next month ... it's help a lot...
ReplyDeleteBeing from Puri... I can relate my self with your post. Nice one.
ReplyDeletewow great trip .......:-)
ReplyDeletehttp://hindustanisakhisaheli.blogspot.com/
Very nice memory, best of luck
ReplyDeleteNice Clicks
ReplyDeletebeautiful place Puri is !!nice captures Manu !
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