इस बार हमारा मन कुछ और था । यहां से मैन और विधान ने और संदीप भाई ने और विपिन ने महाराष्ट्र वालो की बाइक ले ली और उन्हे अपनी गाडी में बिठा...
इस बार हमारा मन कुछ और था । यहां से मैन और विधान ने और संदीप भाई ने और विपिन ने महाराष्ट्र वालो की बाइक ले ली और उन्हे अपनी गाडी में बिठा दिया अब जाकर हमें पहली बार मजा आया था यात्रा का । 24 घंटे से हम लोग गाडी में बंधकर बैठे थे । किसी को कुछ कहा भी नही जा सकता था पर जो मजा गाडी में बैठे बैठे फोटो खींचने का होता है वो नही लिया जा रहा था और हर जगह पर गाडी नही रोकी जा रही थी ।
उसका एक कारण था । गाडी में तीसरी सीट जो कि एक ही सीट लम्बे रूप में थी उस पर जाने के लिये पीछे डिग्गी से रास्ता नही था बल्कि पिछली खिडकी से जाना होता था तो बार बार निकलने में और अंदर बैठने के बाद थोडी दूर जाने में ही बडी परेशानी होती थी अगर कोई ये कहे कि रूक जाओ तो । और रास्ते में आते हुए नजारों को देखने को भी मन करता था तो दुविधा में फंसे हुए थे । पर बाइक लेते ही चेहरो पर मुस्कान आ गयी
हमारा प्रोग्राम तो बाइक से ही था पर ये तो संदीप जी के मित्र राजेश ने गाडी का प्रोग्राम बनाया तो वे मना नही कर सके । अब बाइक लेकर चले तो बाइक का मजा ना लें तो बात अधूरी सी रह जाती है । सबसे पहले जो हमारे सामने नजारा था वो था एक घाटी में बह रही नदी के उपर से गुजर रही पठानकोट से जोगिन्दर नगर चलने वाली ट्रेन के एक पुल का जो कि काफी गोलाई में घूम रहा था । उसे पहले देखकर गाडी रोकी तो वहां पर झाडियां काफी थी । हमें देखकर गाडी वालो ने भी गाडी रोकी और उतर आये पर जब फोटो लेने का बढिया व्यू नही मिला तो हम तो आगे चल दिये ।
आगे चलकर और सडक वाला पुल पार करके हम लोगो को एक जगह पटरी पर जाने का पैदल रास्ता दिखायी दिया तो हमने अपनी बाइक सडक किनारे खडी की और उस पगडंडी पर चल दिये । गाडी वाले बडी मुश्किल से तो उतरे थे फिर से पैक हुए और अब 200 मी0 बाद दोबारा गाडी रोकना उनके लिये मुश्किल था सेा वे तो नही रूके इस बार पर हम तो बाइक की वजह से उस पुल तक गये और पुल के उपर पूरा घूमकर आये । ये पुल न0 388 था ।ये लाइन पठानकोट से जोगिन्दर नगर के लिये चलने वाली ट्रेन की है और इस ट्रेन का हिसाब शिमला कालका ट्रेन से थोडा अलग है । कहने को तो ये भी वही खिलौना रेल है 1926 में इस लाइन का काम शुरू हुआ था और अपने सफर में इस ट्रेन में प्राकृतिक दृश्यो के आनंद के साथ साथ सुरंगो में से गुजरने का रोमांच भी काफी आता है । जाट देवता के तो मन में बस गया था कि अगर मौका मिला तो इसी यात्रा में इस ट्रेन का टूर करेंगे और वो उन्हे मिला भी ।
यहां नीचे बह रही नदी का दृश्य भी बडा सुंदर था । पानी तो ज्यादा नही था नदी में पर काफी चौडा पाट था नदी का इसका मतलब नदी बरसात में या पहले काफी दूर तक बहती होगी । यहां फोटो खिंचाने के बाद हम लोग आगे चले तो एक सुंरग आयी जो कि ज्यादा लंबी तो नही थी पर काफी बढिया बनी थी और बढिया लग रही थी । यहां पर रूककर हमने फिर से फोटो खींचे और फिर आगे के लिये चले । अब हमें जाकर असली मजा आया था सफर का । पता नही क्यों संदीप भाई ने बाइक का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया था । उधर वो महाराष्ट्र वाले गाडी में बैठकर कुढ रहे थे । ना तो उन्हे फोटो खींचने को मिल रहे थे और ना ही ज्यादा खुला खुला बैठने का आराम
आगे अब हम लोग कांगडा की ओर जा रहे थे । मौसम सुहावना था और धूप खिली हुई थी । गर्मी का तो बाइक पर लगने का सवाल ही नही था और रास्ते में एक से बढकर एक नजारे आ रहे थे और इस बार हमारा कैमरा जमकर क्लिक कर रहा था । कैमरे में बाइक या गाडी से चलते चलते फोटो लेने में अक्सर फोटो खराब हो जाते हैं इस बात को मैने पिछले सिक्क्मि के टूर में सीख लिया था और इस बार जब भी बाइक पर बैठा तो कैमरे को स्पोर्टस मोड में लगा लेता था । इस बीच जितने भी फोटो खींचे वो सब चलती बाइक के ही हैं । कांगडा घाटी में जाने के लिये पहले हमें उतराई और फिर चढाई चढनी पडी ।
कांगडा में जाने से पहले एक पुल आया जिसका डिजाइन बडा सुंदर था और इसी वजह से मैने इसका भी एक फोटो ले लिया आप भी देख लीजिये । कांगडा मे होकर जब हम निकले तो इतने पास होकर माता के मंदिर के भी हम माता के दर्शन नही कर पाये क्योंकि हमारा चम्बा का विचार था जो कि अभी काफी दूर था और अंधेरा जल्द ही छाने वाला था । इसलिये हम चलते रहे । आगे जाकर एक पुल और आया जो कि इतना संकरा था कि उस पर एक बार में एक ही गाडी निकल सकती थी । काफी पुराने समय का बना हुआ पुल था और पुल से पहले काफी चाय काफी की दुकाने थी । यहां पर रूककर हमने चाय पी और जाट देवता ने पिया नींबू पानी क्योंकि वो चाय भी नही पीते । हांलाकि गाडी वाले हमसे आगे निकल चुके थे पर हमें इस बात की परवाह नही थी क्येांकि हम तो बाइक पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे ।
अब अंधेरा होने लगा था और चम्बा काफी दूर था सेा हमने नूरपुर में रूकने का फैसला किया । उधर गाडी वालो का भी फोन आ रहा था जब हम गाडी वालो के पास पहुंचे तो वो नूरपुर में चम्बा को जाने वाले रास्ते पर खडे थे । हमने पूछा कि आप यहां हमसे पहले आ गये हो तो कमरा नही ढूंढा बोले कि नही हम तो आपका इंतजार कर रहे थे । लो जी करलो बात अब दोनो बाइक उठायी और मै और महाराष्ट्र वाले चल पडे कमरा देखने । नुरपूर एक कस्बा सा है और ये कोई पर्यटक स्थल भी नही है इसलिये यहां पर एक ही होटल है जो बाजार के नजदीक चम्बा जाने वाले रास्ते पर है । संदीप जी उधर को निकल गये पैदल घूमते घूमते । हम पठानकोट वाले रास्ते पर को चले गये आगे जाकर कस्बा खत्म हो गया तो हमें कोई होटल नही मिला । एक आदमी से पूछा तो वो बोला कि यहां से 2 किलोमीटर दूर एक होटल है मै वहीं पर रूका हूं और आप चलना चाहेा तो मुझे भी बिठा लो । हमने उसे एक बाइक पर बिठाया और 2 किलोमीटर दूर जाकर उसने होटल दिखाया । दरअसल ये होटल ना होकर भूतपूर्व सैनिक विश्राम गृह था और यहां पर वैसे तो भूतपूर्व सैनिको को रूकने में प्राथमिकता दी जाती है पर कमरे खाली हों तो कोई भी रूक सकता है । यहां पर जेसीओ वाला कमरा 150 रू में और मेजर या बडे अधिकारी का कमरा 200 रू में था । यहां एक डोरमैट्री भी थी जो कि 75 रू प्रति व्यक्ति थी । सारे होटल में ले देकर एक वही आदमी था जो कि हमें रास्ते में मिला था । बाकी सब सपाट । देखभाल करने और कमरा देने के लिये एक बुजुर्ग केयर टेकर था जिसका घर पास में ही था । कमरा देखने और रेट देखने के बाद मैने सीधा फोन लगाया संदीप जी को तो उन्होने पैरो के नीचे से जमीन ही खिसका दी । बोले कि कमरा मिल गया है और पैसे जमा करा दिये हैं तुम कहां हो ? हम अपनी क्या बताते फिर भी उनसे पूछा कि कितने में लिया कमरा तो बोले कि 500 रू में एक कमरे के हिसाब से तीन कमरे ले लिये हैं और 1500 रू जमा करा दिये हैं । मैने कहा संदीप जी यहां पर बहुत बढिया कमरे 200 रू में मिल रहे हैं आप उस होटल वाले से अगर हो सके तो पैसे वापिस ले लेा और अगर वो चाहे तो 100 या 200 रू काट भी ले तो कोई बात नही यहां पर फिर भी फायदा है । महाराष्ट्र वाले जो दो बाइक पर मेरे साथ थे और विपिन का भी यही कहना था कि यहां 600 में तीन कमरे लेंगे और वो 200 रू भी ले लेगा तो भी 700 रू बचेंगे । संदीप जी हमारे जाट देवता जी हैं सीधे साधे और भोले भंडारी । उन्होने होटल वाले को सीधा बता दिया कि हमारे साथियो ने कहीं और कमरा देख लिया है इसलिये हमें पैसे वापिस दे दो । अब वहां कोई पर्यटक स्थल तो था नही जो होटल वाला पैसे देकर अपने कमरे खाली रखता । वहां तो उस रात हमारे सिवा ना कोई और था ना आया तो उसने साफ मना कर दिया कि ना तो पैसे वापिस करूंगा ना कुछ काटूंगा आपको रहना ही होगा । दरअसल ये हुआ क्योंकि हम लोग सब साथ में पहली बार गये थे तो अभी आपसी तालमेल नही बना था और संदीप जी ने पसंद आते ही कमरा फाइनल कर दिया जबकि हम लोग भी कमरा देखने निकले थे तो जिसको पहले कोई कमरा मिले उसे कम से कम एक बार पूछ जरूर ले और लोगो से जो कि गये हुए हैं इसी काम से । खैर हम लोग वापिस आये तो जो होटल मालिक था वो सिर्फ बात करने पर ही बडी अभद्रता से पेश आया । वो सोच रहा था कि कहीं ये पैसे वापिस ना मांगने लगें दोबारा । एक बार को तो मन किया कि 12 लोग हैं सब के सब छडे तो इसे ठीक कर देते हैं फिर सोचा कि हमें तो लम्बी यात्रा पर जाना है तो यहां पर ये काम होगा तो हम सब लोग उलझ जायेंगे इसलिये फिर उसे कुछ नही कहा और कमरो में सामान रखकर खाने की तलाश में बाहर बाजार में निकले । यहां जो भी दो तीन होटल थे खाने के उन सबमें मांसाहारी खाना बनता था । केवल शाकाहारी होटल तो मिला ही नही तो एक होटल में 50 रू प्रति थाली के हिसाब से खाना लिया जिसमे उसने तंदूरी रोटी के आटे से ही कोशिश करके हमारे कहने से तवे की रोटी का रूप दिया खाना खाकर हम लोग सेाने चले गये । कमरे में चार चार लोगो को एडजस्ट होना था जिसमें से महाराष्ट्र वाले तो चार हो गये थे जबकि राजेश जी के साथ दो थे और हमने 5 ने एक कमरे में सोना तय किया । एक बैड पर चारेा लोग सेा गये और जाट देवता ने अपना बिस्तर धरती पर लगा लिया । जैसे भी थी रात गुजारी और सुबह सवेरे उठकर हम लोग नहा धोकर 6 बजे के करीब अपने आगे के सफर पर चल दिये
संचार क्रांति की धमक यहां पर किस तरह हो चुकी है इसकी एक बानगी आप इस फोटो में देख सकते हैं । आप कह सकते हैं कि इस फोटो में खास क्या है तेा मै आपको बता दूं कि वैसे तो मोबाईल टावर होना कोई खास बात नही है पर यहां पर एक साथ एक ही जगह सात मोबाईल कम्पनियों के टावर लगे थे और ऐसा मैने तो कम ही देखा है आपने देखा हो तो बताना जरूर
उसका एक कारण था । गाडी में तीसरी सीट जो कि एक ही सीट लम्बे रूप में थी उस पर जाने के लिये पीछे डिग्गी से रास्ता नही था बल्कि पिछली खिडकी से जाना होता था तो बार बार निकलने में और अंदर बैठने के बाद थोडी दूर जाने में ही बडी परेशानी होती थी अगर कोई ये कहे कि रूक जाओ तो । और रास्ते में आते हुए नजारों को देखने को भी मन करता था तो दुविधा में फंसे हुए थे । पर बाइक लेते ही चेहरो पर मुस्कान आ गयी
हमारा प्रोग्राम तो बाइक से ही था पर ये तो संदीप जी के मित्र राजेश ने गाडी का प्रोग्राम बनाया तो वे मना नही कर सके । अब बाइक लेकर चले तो बाइक का मजा ना लें तो बात अधूरी सी रह जाती है । सबसे पहले जो हमारे सामने नजारा था वो था एक घाटी में बह रही नदी के उपर से गुजर रही पठानकोट से जोगिन्दर नगर चलने वाली ट्रेन के एक पुल का जो कि काफी गोलाई में घूम रहा था । उसे पहले देखकर गाडी रोकी तो वहां पर झाडियां काफी थी । हमें देखकर गाडी वालो ने भी गाडी रोकी और उतर आये पर जब फोटो लेने का बढिया व्यू नही मिला तो हम तो आगे चल दिये ।
आगे चलकर और सडक वाला पुल पार करके हम लोगो को एक जगह पटरी पर जाने का पैदल रास्ता दिखायी दिया तो हमने अपनी बाइक सडक किनारे खडी की और उस पगडंडी पर चल दिये । गाडी वाले बडी मुश्किल से तो उतरे थे फिर से पैक हुए और अब 200 मी0 बाद दोबारा गाडी रोकना उनके लिये मुश्किल था सेा वे तो नही रूके इस बार पर हम तो बाइक की वजह से उस पुल तक गये और पुल के उपर पूरा घूमकर आये । ये पुल न0 388 था ।ये लाइन पठानकोट से जोगिन्दर नगर के लिये चलने वाली ट्रेन की है और इस ट्रेन का हिसाब शिमला कालका ट्रेन से थोडा अलग है । कहने को तो ये भी वही खिलौना रेल है 1926 में इस लाइन का काम शुरू हुआ था और अपने सफर में इस ट्रेन में प्राकृतिक दृश्यो के आनंद के साथ साथ सुरंगो में से गुजरने का रोमांच भी काफी आता है । जाट देवता के तो मन में बस गया था कि अगर मौका मिला तो इसी यात्रा में इस ट्रेन का टूर करेंगे और वो उन्हे मिला भी ।
यहां नीचे बह रही नदी का दृश्य भी बडा सुंदर था । पानी तो ज्यादा नही था नदी में पर काफी चौडा पाट था नदी का इसका मतलब नदी बरसात में या पहले काफी दूर तक बहती होगी । यहां फोटो खिंचाने के बाद हम लोग आगे चले तो एक सुंरग आयी जो कि ज्यादा लंबी तो नही थी पर काफी बढिया बनी थी और बढिया लग रही थी । यहां पर रूककर हमने फिर से फोटो खींचे और फिर आगे के लिये चले । अब हमें जाकर असली मजा आया था सफर का । पता नही क्यों संदीप भाई ने बाइक का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया था । उधर वो महाराष्ट्र वाले गाडी में बैठकर कुढ रहे थे । ना तो उन्हे फोटो खींचने को मिल रहे थे और ना ही ज्यादा खुला खुला बैठने का आराम
आगे अब हम लोग कांगडा की ओर जा रहे थे । मौसम सुहावना था और धूप खिली हुई थी । गर्मी का तो बाइक पर लगने का सवाल ही नही था और रास्ते में एक से बढकर एक नजारे आ रहे थे और इस बार हमारा कैमरा जमकर क्लिक कर रहा था । कैमरे में बाइक या गाडी से चलते चलते फोटो लेने में अक्सर फोटो खराब हो जाते हैं इस बात को मैने पिछले सिक्क्मि के टूर में सीख लिया था और इस बार जब भी बाइक पर बैठा तो कैमरे को स्पोर्टस मोड में लगा लेता था । इस बीच जितने भी फोटो खींचे वो सब चलती बाइक के ही हैं । कांगडा घाटी में जाने के लिये पहले हमें उतराई और फिर चढाई चढनी पडी ।
कांगडा में जाने से पहले एक पुल आया जिसका डिजाइन बडा सुंदर था और इसी वजह से मैने इसका भी एक फोटो ले लिया आप भी देख लीजिये । कांगडा मे होकर जब हम निकले तो इतने पास होकर माता के मंदिर के भी हम माता के दर्शन नही कर पाये क्योंकि हमारा चम्बा का विचार था जो कि अभी काफी दूर था और अंधेरा जल्द ही छाने वाला था । इसलिये हम चलते रहे । आगे जाकर एक पुल और आया जो कि इतना संकरा था कि उस पर एक बार में एक ही गाडी निकल सकती थी । काफी पुराने समय का बना हुआ पुल था और पुल से पहले काफी चाय काफी की दुकाने थी । यहां पर रूककर हमने चाय पी और जाट देवता ने पिया नींबू पानी क्योंकि वो चाय भी नही पीते । हांलाकि गाडी वाले हमसे आगे निकल चुके थे पर हमें इस बात की परवाह नही थी क्येांकि हम तो बाइक पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे ।
अब अंधेरा होने लगा था और चम्बा काफी दूर था सेा हमने नूरपुर में रूकने का फैसला किया । उधर गाडी वालो का भी फोन आ रहा था जब हम गाडी वालो के पास पहुंचे तो वो नूरपुर में चम्बा को जाने वाले रास्ते पर खडे थे । हमने पूछा कि आप यहां हमसे पहले आ गये हो तो कमरा नही ढूंढा बोले कि नही हम तो आपका इंतजार कर रहे थे । लो जी करलो बात अब दोनो बाइक उठायी और मै और महाराष्ट्र वाले चल पडे कमरा देखने । नुरपूर एक कस्बा सा है और ये कोई पर्यटक स्थल भी नही है इसलिये यहां पर एक ही होटल है जो बाजार के नजदीक चम्बा जाने वाले रास्ते पर है । संदीप जी उधर को निकल गये पैदल घूमते घूमते । हम पठानकोट वाले रास्ते पर को चले गये आगे जाकर कस्बा खत्म हो गया तो हमें कोई होटल नही मिला । एक आदमी से पूछा तो वो बोला कि यहां से 2 किलोमीटर दूर एक होटल है मै वहीं पर रूका हूं और आप चलना चाहेा तो मुझे भी बिठा लो । हमने उसे एक बाइक पर बिठाया और 2 किलोमीटर दूर जाकर उसने होटल दिखाया । दरअसल ये होटल ना होकर भूतपूर्व सैनिक विश्राम गृह था और यहां पर वैसे तो भूतपूर्व सैनिको को रूकने में प्राथमिकता दी जाती है पर कमरे खाली हों तो कोई भी रूक सकता है । यहां पर जेसीओ वाला कमरा 150 रू में और मेजर या बडे अधिकारी का कमरा 200 रू में था । यहां एक डोरमैट्री भी थी जो कि 75 रू प्रति व्यक्ति थी । सारे होटल में ले देकर एक वही आदमी था जो कि हमें रास्ते में मिला था । बाकी सब सपाट । देखभाल करने और कमरा देने के लिये एक बुजुर्ग केयर टेकर था जिसका घर पास में ही था । कमरा देखने और रेट देखने के बाद मैने सीधा फोन लगाया संदीप जी को तो उन्होने पैरो के नीचे से जमीन ही खिसका दी । बोले कि कमरा मिल गया है और पैसे जमा करा दिये हैं तुम कहां हो ? हम अपनी क्या बताते फिर भी उनसे पूछा कि कितने में लिया कमरा तो बोले कि 500 रू में एक कमरे के हिसाब से तीन कमरे ले लिये हैं और 1500 रू जमा करा दिये हैं । मैने कहा संदीप जी यहां पर बहुत बढिया कमरे 200 रू में मिल रहे हैं आप उस होटल वाले से अगर हो सके तो पैसे वापिस ले लेा और अगर वो चाहे तो 100 या 200 रू काट भी ले तो कोई बात नही यहां पर फिर भी फायदा है । महाराष्ट्र वाले जो दो बाइक पर मेरे साथ थे और विपिन का भी यही कहना था कि यहां 600 में तीन कमरे लेंगे और वो 200 रू भी ले लेगा तो भी 700 रू बचेंगे । संदीप जी हमारे जाट देवता जी हैं सीधे साधे और भोले भंडारी । उन्होने होटल वाले को सीधा बता दिया कि हमारे साथियो ने कहीं और कमरा देख लिया है इसलिये हमें पैसे वापिस दे दो । अब वहां कोई पर्यटक स्थल तो था नही जो होटल वाला पैसे देकर अपने कमरे खाली रखता । वहां तो उस रात हमारे सिवा ना कोई और था ना आया तो उसने साफ मना कर दिया कि ना तो पैसे वापिस करूंगा ना कुछ काटूंगा आपको रहना ही होगा । दरअसल ये हुआ क्योंकि हम लोग सब साथ में पहली बार गये थे तो अभी आपसी तालमेल नही बना था और संदीप जी ने पसंद आते ही कमरा फाइनल कर दिया जबकि हम लोग भी कमरा देखने निकले थे तो जिसको पहले कोई कमरा मिले उसे कम से कम एक बार पूछ जरूर ले और लोगो से जो कि गये हुए हैं इसी काम से । खैर हम लोग वापिस आये तो जो होटल मालिक था वो सिर्फ बात करने पर ही बडी अभद्रता से पेश आया । वो सोच रहा था कि कहीं ये पैसे वापिस ना मांगने लगें दोबारा । एक बार को तो मन किया कि 12 लोग हैं सब के सब छडे तो इसे ठीक कर देते हैं फिर सोचा कि हमें तो लम्बी यात्रा पर जाना है तो यहां पर ये काम होगा तो हम सब लोग उलझ जायेंगे इसलिये फिर उसे कुछ नही कहा और कमरो में सामान रखकर खाने की तलाश में बाहर बाजार में निकले । यहां जो भी दो तीन होटल थे खाने के उन सबमें मांसाहारी खाना बनता था । केवल शाकाहारी होटल तो मिला ही नही तो एक होटल में 50 रू प्रति थाली के हिसाब से खाना लिया जिसमे उसने तंदूरी रोटी के आटे से ही कोशिश करके हमारे कहने से तवे की रोटी का रूप दिया खाना खाकर हम लोग सेाने चले गये । कमरे में चार चार लोगो को एडजस्ट होना था जिसमें से महाराष्ट्र वाले तो चार हो गये थे जबकि राजेश जी के साथ दो थे और हमने 5 ने एक कमरे में सोना तय किया । एक बैड पर चारेा लोग सेा गये और जाट देवता ने अपना बिस्तर धरती पर लगा लिया । जैसे भी थी रात गुजारी और सुबह सवेरे उठकर हम लोग नहा धोकर 6 बजे के करीब अपने आगे के सफर पर चल दिये
संचार क्रांति की धमक यहां पर किस तरह हो चुकी है इसकी एक बानगी आप इस फोटो में देख सकते हैं । आप कह सकते हैं कि इस फोटो में खास क्या है तेा मै आपको बता दूं कि वैसे तो मोबाईल टावर होना कोई खास बात नही है पर यहां पर एक साथ एक ही जगह सात मोबाईल कम्पनियों के टावर लगे थे और ऐसा मैने तो कम ही देखा है आपने देखा हो तो बताना जरूर
यहाँ भी बढिया है।
ReplyDeleteपोस्ट को एक बार पढ लिया करो यदि कोई गलती रह जाती है तो ठीक हो जाती है
वाह मनु भाई बढ़िया यात्रा विवरण लिखा है आपने | चित्र भी बढ़िया हैं |मोटरसाईकल पर यात्रा करने वाले को कार में मज़ा नहीं आता है |पर एक बात कहना चाहूगां |आप जब भी पोस्ट लिखते हो सबसे पहले लिखें इस यात्रा को शुरू से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें |इससे पहला भाग पढने के लिए यहाँ क्लिक करें और अन्त में लिखिए (जो भी आप अगले भाग में लिखना चाहते हैं ) वो लिख दीजिये ,तो पढने वालो को और भी अच्छा लगेगा |मैं आपको सिर्फ सलाह दे रहा हूँ , कृपया अन्यथा न ले |
ReplyDeletesahi kaha Suresh ji...
Deleteज्ञानवर्धक पोस्ट. रेलवे लाइन पर ब्लॉग का नाम पूरा नहीं दिख रहा
ReplyDeletenice and excillent
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