अलवर नारायणपुर मार्ग पर पहाडो की गोद में बसा ये गांव सघर वृक्षो से भरा हुआ है । ऐसा कहा जाता है कि महान रिषी माण्डव ने इस जगह पर तपस्या की थ...
अलवर नारायणपुर मार्ग पर पहाडो की गोद में बसा ये गांव सघर वृक्षो से भरा हुआ है । ऐसा कहा जाता है कि महान रिषी माण्डव ने इस जगह पर तपस्या की थी । गंगका माता का प्राचीन मंदिर और उसके नीचे बने गरम और ठंडे पानी के कुंड यहां की खासियत हैं । वैसे यहां पर घूमने का सबसे बढिया समय मानसून का है जब यहां की पहाडियो का रंग हरा हो जाता है । उस समय यहां की झीले पानी से भर जाती है और पहाडियो से झरने बहने लगते हैं । अलवर से तालवृक्ष दक्षिण पश्चिम दिशा में है । ये अलवर से 45 किलोमीटर के करीब है । यहां पर सरिस्का अलवर रोड पर कुशलगढ नाम की जगह आती है । वहां से दस किलोमीटर सरिस्का से अलवर जाते समय सीधे हाथ पर रास्ता गया है । यहीं पर गंगा मंदिर है ।
यहां पर ज्यादातर जगहो पर एक ही रिवाज या चलन देखा कि हर आदमी यहां पर जानवरो के लिये दाना बाजरा या गेंहू जरूर डालते हैं इस वजह से यहां पर और पक्षियो के अलावा कबूतरो की ज्यादा संख्या है । सिर्फ यही नही इस इलाके में गायो को आवारा घूमते देखा जा सकता है । पता नही उन्हे भी गेंहू डालते हैं या नही पर घूमते समय आपको हरदम नीचे देखना रहना चाहिये क्योंकि ये कहीं भी गोबर कर देते हैं ।
इस जगह की धार्मिक महत्ता इतनी होते हुए भी ये स्थान उपेक्षित है । धार्मिक लोग यहां पर आ बहुत रहे थे पर ज्यादातर यहां पर गंदगी ही फैला रहे थे । अपने नहाने के कपडे यहां पर छोड जाना भी गंदगी है बाकी कसर कबूतरो की बेतहाशा संख्या और गायो के जगह जगह गोबर ने कर रखी थी । ऐसा लग रहा था कि यहां जाने कब से झाडू भी नही लगी और इसीलिये यहां ज्यादा देर नही रूके । नहाने का मन था पर वो भी नही किया । नहाने के कुंड वैसे महिलाओ और पुरूषो के लिये अलग अलग बने हुए हैं ।
यहां से अलवर ज्यादा दूर नही था और हम अलवर के लिये चल दिये । दस किलोमीटर दूर कुशलगढ आकर फिर से उल्टे हाथ को चल दिये । यहां से दस बारह किलोमीटर चलने के बाद एक जगह आती है नटनी का बाडा । यहां पर एक मंदिर बना हुआ है । किसी नटनी के बारे में बताते हैं कि वो पहाड के इस किनारे से उस किनारे तक आया जाया करती थी । मंदिर तो यहां पर नया ही बन रहा था पर जगह की सुंदरता ठीक ठाक थी । एक छोटी सी नदी सी थी । नदी सी इसलिये कह रहा हूं कि पानी तो रूका हुआ सा ही था पर दोनो ओर पहाड और बीच में नदी के किनारे बना मंदिर सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है ।
मंदिर नया बन रहा है बल्कि कहो तो जीर्णोद्धार हो रहा है ।
यहां पर ज्यादातर जगहो पर एक ही रिवाज या चलन देखा कि हर आदमी यहां पर जानवरो के लिये दाना बाजरा या गेंहू जरूर डालते हैं इस वजह से यहां पर और पक्षियो के अलावा कबूतरो की ज्यादा संख्या है । सिर्फ यही नही इस इलाके में गायो को आवारा घूमते देखा जा सकता है । पता नही उन्हे भी गेंहू डालते हैं या नही पर घूमते समय आपको हरदम नीचे देखना रहना चाहिये क्योंकि ये कहीं भी गोबर कर देते हैं ।
इस जगह की धार्मिक महत्ता इतनी होते हुए भी ये स्थान उपेक्षित है । धार्मिक लोग यहां पर आ बहुत रहे थे पर ज्यादातर यहां पर गंदगी ही फैला रहे थे । अपने नहाने के कपडे यहां पर छोड जाना भी गंदगी है बाकी कसर कबूतरो की बेतहाशा संख्या और गायो के जगह जगह गोबर ने कर रखी थी । ऐसा लग रहा था कि यहां जाने कब से झाडू भी नही लगी और इसीलिये यहां ज्यादा देर नही रूके । नहाने का मन था पर वो भी नही किया । नहाने के कुंड वैसे महिलाओ और पुरूषो के लिये अलग अलग बने हुए हैं ।
यहां से अलवर ज्यादा दूर नही था और हम अलवर के लिये चल दिये । दस किलोमीटर दूर कुशलगढ आकर फिर से उल्टे हाथ को चल दिये । यहां से दस बारह किलोमीटर चलने के बाद एक जगह आती है नटनी का बाडा । यहां पर एक मंदिर बना हुआ है । किसी नटनी के बारे में बताते हैं कि वो पहाड के इस किनारे से उस किनारे तक आया जाया करती थी । मंदिर तो यहां पर नया ही बन रहा था पर जगह की सुंदरता ठीक ठाक थी । एक छोटी सी नदी सी थी । नदी सी इसलिये कह रहा हूं कि पानी तो रूका हुआ सा ही था पर दोनो ओर पहाड और बीच में नदी के किनारे बना मंदिर सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है ।
मंदिर नया बन रहा है बल्कि कहो तो जीर्णोद्धार हो रहा है ।
As usual very well written post !
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